कैसे कहूँ जो कहना है, पता भी हो तो ना कह पाऊं। वो शब्द इतने विशाल हैं कि मेरी अदनी सी ज़ुबान पे समा नहीं पाते। ये वहां से शुरू होता है जहां ज़ुबान की सीमा समाप्त हो जाती है।
एक चमकीली जगह है वहाँ खड़े हो तुम...ये जगह मेरे और ज़ुबान के न जाने कितने आगे है। हम मूक बने देखते हैं इसे समाते हुए अपनी आंखों में, साँसों में, खुदमें।
तुम पूछते हो इसे...जिसे मैं पूरा सोच भी नहीं पा रहा तो कहूँगा कैसे।
यह को नक़ली चिड़िया राइट साइड मैं अपने चिपकाई है, उसके बारे में कुछ बताइए गुरुजी ?
ReplyDelete